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इस्लामी युद्ध-नियम व संधि की हैसियत

الهندية - हिन्दी

المؤلف अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
القسم مقالات
النوع نصي
اللغة الهندية - हिन्दी
المفردات عقد الهدنة
दुश्मनों के क्या अधिकार हैं? इसका परिचय सबसे पहले इस्लाम ने दिया है। युद्ध के शिष्टाचार की कल्पना से दुनिया बिल्कुल बेख़बर थी। पश्चिमी दुनिया इस कल्पना से पहली बार सत्रहवीं सदी के विचारक ग्रोशियूस (Grotius) के ज़रिये से परिचित हुई। मगर अमली तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध नियम उन्नीसवीं सदी के मध्य में बनाना शुरू हुए। इससे पहले युद्ध के शिष्टाचार का कोई ख़्याल पश्चिम वालों के यहां नहीं पाया जाता था। जंग में हर तरह के जु़ल्म व सितम किए जाते थे और किसी तरह के अधिकार जंग करने वाली क़ौम के नहीं माने जाते थे। उन्नीसवीं सदी में और उसके बाद से अब तक जो नियम भी बनाए गए हैं, उनकी अस्ल हैसियत क़ानून की नहीं, बल्कि संधि की सी है। उनको अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून कहना हक़ीक़त में ‘क़ानून’ शब्द का ग़लत इस्तेमाल है। क्योंकि कोई क़ौम भी जंग में उस पर अमल करना अपने लिए ज़रूरी नहीं समझती। सिवाए इसके कि दूसरा भी उसकी पाबन्दी करे। यही वजह है कि हर जंग में इन तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं और हर बार उन पर पुनर्विचार किया जाता रहा, और उन में कमी व बेशी होती रही। इसके विपरीत, इस्लाम ने जंग के जो शिष्टाचार बताए हैं, उनकी सही हैसियत क़ानून की है, क्योंकि वे मुसलमानों के लिए अल्लाह और रसूल के दिए हुए आदेश हैं, जिनकी पाबन्दी हम हर हाल में करेंगे, चाहे हमारा दुश्मन कुछ भी करता रहे। अब यह देखना हर ज्ञान रखनेवाले का काम है कि जो जंगी-नियम चौदह सौ साल पहले तय किए गए थे, पश्चिम के लोगों ने उसकी नक़ल की है या नहीं, और नक़ल करके भी वह जंग की सभ्य मर्यादाओं के उस दर्जे तक पहुंच सका है या नहीं, जिस पर इस्लाम ने हमें पहुंचाया था।

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इस्लामी युद्ध-नियम व संधि की हैसियत
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